कासिद के आते-आते, ख़त एक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो, वो लिखेंगे जवाब में !!
कब से हूँ, क्या बताऊँ, जहां-ने-खराब में,
शब् हाय, हिज्र को भी रखूँ, घर हिसाब में !!
मुझ तक करम की बज़्म में, आता था दौर-ए-जान,
साकी ने कुछ मिला न दिया हो, शराब में !!
ताहिर न इंतज़ार में, नींद आये उम्र भर,
आने का एहद कर गए, आये जो ख्वाब में !!
ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी कभी-कभी,
पीता हूँ रोज़े अब्र-ओ-शब्बे, महताब में !!
–मिर्ज़ा ग़ालिब
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