Bezubaan

Posted: अप्रैल 20, 2015 in Uncategorized

बेज़ुबां : अनुपम रॉय/मनोज यादव –

किस लम्हें ने थामी उंगली मेरी,
फुसला के मुझको ले चला,
नंगे पावों दौरी आँखें मेरी,
ख्वाबों की सारी बस्तियां ।

हर दूरियां, हर फासले करीब हैं,
इस उम्र की भी शख्सियत अजीब हैं ।

झीनी-झीनी, इन साँसों से,
पहचानी सी, आवाज़ों में,
गूंजें हैं आज आसमां,
कैसे हम बेज़ुबां !!

इस जीने में, कहीं हम भी थे,
थे ज्यादा या, ज़रा कम ही थे,
रुक के भी चल पड़े मगर,
रस्ते सब बेज़ुबां !!

जीने की यह कैसी आदत लगी,
बेमतलब कर्ज़े चढ़ गए,
हादसों से बचके जाते कहाँ,
सब रोते-हँसते सह गए ।

अब गलतियाँ जो मान ली तो ठीक हैं,
कमज़ोरियों को मात दी तो ठीक हैं ।

झीनी-झीनी, इन साँसों से,
पहचानी सी, आवाज़ों में,
गूंजें हैं आज आसमां,
कैसे हम बेज़ुबां !!

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