तुम फिर एकाँकी लिख लेना,
हमे सरहद पर सो जाने दो,
तुम कथा-वृतांत कह लेना,
पहले ये शीश कट जाने दो,
एक सरहद पार ही शत्रु नहीं,
हैं एक मेरे घर के अन्दर भी,
एक खून का कतरा बाहर तो,
हैं एक बहता मेरे अंतर भी,
जो शीश उठाकर जीते हैं,
वो कहाँ अमर बन पाते हैं,
कहाँ किताबों के पन्नों पर,
कभी उनके नाम भी आते हैं,
जो राजनीति में माहिर हैं,
जो खेल में अव्वल आते हैं,
जो डर कर जिंदा रहते हैं,
वही अमर इतिहास बनाते हैं,
कल अमर जवान पर मेले हो,
फिर पुष्प चढ़े, हो मौन प्रथा,
दो-चार दिनों तक अख़बारों में,
तुम खूब लिखो मेरी वीर-कथा,
ये नि:सत्व रीति चली हैं बरसो से,
इसके संस्मरण अब नवल नहीं,
तुम्हारी अमन की आशा खुनी हैं,
ये विष-कंटक हैं,ये कँवल नहीं !!
-Chandra Tewary