प्रिय, जब न तुम होगे,
न होगा तुम्हारा अभिनय,
जब न होगा मन में चिर राग,
चक्षु कैसे धोयेंगे स्वप्न अपने।
क्या होगा जलधारों का,
ये बादल जब भी बरसेंगे,
क्या होगा पुष्पहारो का,
ये मधुकर जब भी तरसेंगे,
क्या होगा इन तारों का,
ये नभ में जब भी निकलेंगे,
क्या होगा जीर्ण प्राणों का,
ये पल-पल जब भी विकलेंगे।
वसंत की सुरभि कुहुकिनी,
कुह्केगी जब हिमकर तक,
तिमिर से डरकर किरणें यों,
लौटेगी जब दिनकर तक,
क्या प्रश्न उठेंगे मन में मेरे,
अधरों से तब अन्तर तक,
व्यथा की सीमा क्या होगी ,
ये फैलेगी जब अम्बर तक।
प्रिय, जब न तुम होगे,
न होगा तुम्हारा परिचय,
जब न होगा मन में लक्ष्य राग,
पग कैसे भटकेंगे त्यक्त पथ में।
-चन्द्र शेखर तिवारी