सितम्बर, 2013 के लिए पुरालेख

Jab Na Tum Hoge

Posted: सितम्बर 9, 2013 in Uncategorized

प्रिय, जब न तुम होगे,
न होगा तुम्हारा अभिनय,
जब न होगा मन में चिर राग,
चक्षु कैसे धोयेंगे स्वप्न अपने।

क्या होगा जलधारों का,
ये बादल जब भी बरसेंगे,
क्या होगा पुष्पहारो का,
ये मधुकर जब भी तरसेंगे,
क्या होगा इन तारों का,
ये नभ में जब भी निकलेंगे,
क्या होगा जीर्ण प्राणों का,
ये पल-पल जब भी विकलेंगे।

वसंत की सुरभि कुहुकिनी,
कुह्केगी जब हिमकर तक,
तिमिर से डरकर किरणें यों,
लौटेगी जब दिनकर तक,
क्या प्रश्न उठेंगे मन में मेरे,
अधरों से तब अन्तर तक,
व्यथा की सीमा क्या होगी ,
ये फैलेगी जब अम्बर तक।

प्रिय, जब न तुम होगे,
न होगा तुम्हारा परिचय,
जब न होगा मन में लक्ष्य राग,
पग कैसे भटकेंगे त्यक्त पथ में।

-चन्द्र शेखर तिवारी

Shakti Aur Kshama

Posted: सितम्बर 8, 2013 in Uncategorized

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा,
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे,
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष,
तुम हुये विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको,
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का,
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज,
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते,
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द,
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी,
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की,
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि,
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही,
बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का,
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को,
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके,
पीछे जब जगमग है।

– रामधारी सिंह ‘दिनकर’

Pratiksha

Posted: सितम्बर 8, 2013 in Uncategorized

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?

मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

-हरिवंशराय बच्चन