नये शाख निकलेंगे तो शायद कोई सबक होगा,
बरसों से दिये और मोम जलकर राख हुए हैं,
ये सोचकर कि हवाओं में सुकून का महक होगा ।
कि दीवारों और चट्टानों से बचाव मुमकिन नहीं,
जब वक़्त के गुनाहों का ये दरिया समन्दर होगा,
अपने नक़ाब निकाल फेंको कि वो दिन दूर नहीं,
जब जुल्म के तूफानों का राह-बार सिकन्दर होगा ।
वो जो भड़कते हैं सिर्फ अपनों का खून देखकर,
वो बताये तो आखिर मुर्दों का क्या वतन होगा,
मौत किसी की हो, जुल्म की वही निशानी हैं,
इस तरह आपस में बँटवारे से क्या अमन होगा ।
अब आवाज़ ही सही, पर कुछ तो एक सा मिले,
कि मिन्नतों और दुवाओं का कोई तो असर होगा,
अब चींख किसी की हो, सबका दिल एक सा हिले,
किसी मासूम के अरमानों का कँही तो बसर होगा । -चन्द्र शेखर तिवारी