मई, 2013 के लिए पुरालेख
चार पत्ते हरे,
चार पीले पड़े,
वो पौधा एक ही था,
पर ये अन्तर था क्यों?
उष्ण सूरज की किरणें बराबर पड़ी,
ठंडी पवन ने झोंका बराबर दिया,
ऊँचे आसमान से बूँदें बराबर पड़ी,
मिट्टी ने भी मुहब्बत बराबर किया,
किसको पता किसने यहाँ क्या किया,
किसको मुहब्बत किसने कितना दिया,
कोई बारिश की बूंदों में भींगा किया,
कोई सूरज की गर्मी में भी जी लिया !!
चार सच्चे बने,
चार झूठे हुए,
वो घर एक ही था,
पर ये अन्तर था क्यों?
माता-पिता की नजरें बराबर पड़ी,
कुलगुरु ने भी शिक्षा बराबर दिया,
बचपन की बारिश बराबर झड़ी,
जवानी ने भी नसीहत बराबर दिया,
किसको पता किसने यहाँ क्या किया,
किसकी मुहब्बत में वो खुदा पा लिया,
कोई गिरती ईमारत का सौदा किया,
कोई मिट्टी के टुकड़ों में घर कर लिया !!
चार दिल जुड़े ,
चार टूटे पड़े,
मुहब्बत एक ही था,
पर ये अंतर था क्यों?
मुहब्बत की आंधी बराबर चली,
हर मंजिल,किनारा बराबर डूबा,
हर तोहमत वफ़ा की बराबर जली,
था साहिल से कश्ती बराबर जुदा,
किसको पता किसने यहाँ क्या किया,
किसने क्यों किससे था मुहब्बत किया,
कोई अपनी ही खुशियों पर जीता रहा,
कोई दुसरो की खुशियों पर जिंदा रहा !!
चार मर-मिट गए,
चार जिंदा रहें,
वो युद्ध एक ही था,
पर ये अन्तर था क्यों,
उग्र दुश्मन की गोली बराबर चली,
टुकड़ों में सरहद था बराबर बँटा,
उन्हें दुश्मन की धौसें बराबर खली,
उनका अन्तर हृदय था बराबर कटा,
किसको पता किसने यहाँ क्या किया,
किसको यहाँ किसने अपना दम दिया,
कोई छिप कर कहीं कोने से लड़ लिया,
कोई अपने सीने पर गोली ले चल दिया !!
-Chandra Tewary
गुलामी की जब गुत्थी सुलझी,
संविधान बने एक देश बना,
गुरुदेव के राष्ट्रगान में बहकर,
हर प्रान्त जुड़ा एक भेष बना |
नील थी मिट्टी सोना उगली,
हल-बैल चले कृषि-देश बना,
नीव हुई विज्ञान की उजली,
दिशाओं का नया शेष बना |
जालियावाला बाग़ सजा फिर,
बंद होंठों पर मुस्कान खिली,
शहीदों के बलिदान से सुरभित,
फिर मिट्टी में एक जान मिली |
आसमान,समंदर,धरती,पर्वत,
सबको अपनी एक पहचान मिली,
सत्यमेव जयते से हिय गर्वित,
नई स्वतंत्रता की शान मिली | -चन्द्र शेखर तिवारी
दुर्भाग्य नहीं हे मानव,
तेरा अंत अमर हैं,
इस पार मधु और प्रिये,
उस पार समर हैं,
मिट्टी को तू नहीं जाना,
नहीं अम्बर के पीर को,
तू स्वार्थ में ऐसा डूबा,
नहीं जाना फ़कीर को,
सागर का नीर न जाना,
नहीं सरिता के तीर को,
धरती को मारा -काटा,
नहीं जाना शरीर को,
दुर्भाग्य नहीं हे मानव,
तेरा अंत अजर हैं,
इस पार शांत रत्नाकर,
उस पार लहर हैं !!
दुर्भाग्य नहीं हे मानव,
तेरा अंत प्रबल हैं,
इस पार कर्म-प्रवरण,
उस पार कर्म-फल,
हिमालय में हिम न होगा,
होगा वायु जीवनहीन जब,
गगनचर का शोर न होगा,
न जूगनुवों का खेल जब,
प्रकृति फिर जन्म न लेगी,
नहीं दिखेगी ये रंगीन तब,
इस नए मृत सृष्टि का श्रष्टा,
तू होगा मानव महीम तब,
दुर्भाग्य नहीं हे मानव,
तेरा अंत अचल हैं,
इस पार सुधा-सरिता,
उस पार गरल हैं !!
-चन्द्र शेखर तिवारी
इस पार – उस पार (हरिवंशराय बच्चन)
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा-लहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देतीं मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं, मग्न रहो,
बुलबुल तरू की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहतीं,
रसना दो बूँदे पाती है,
जीवन की झिलमिल-सी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वर-तालमयी वीणा बजती,
मिलता है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है,
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है
असमर्थ बना कितना हमको,
कहनेवाले पर, कहते हैं
हम कर्मों से स्वाधीन सदा,
करनेवालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको,
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हल्का कर लेते हैं;
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका,
उसने पथ में काँटे बोए,
वे भार दिए धर कन्धों पर
जो रो-रोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खंडहर का सत्य भरा,
उस में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए,
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणें
तम के अंदर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी,
जब इस लम्बे-चौड़े जग का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनों का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी
बुलबुल न अंधेरे में गा-गा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन
निर्झर भूलेगा निज टलमल,
सरिता अपना ‘कलकल’ गायन
वह गायक-नायक सिंधु कहीं
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण,
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आँखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की सारी सिंदूरी,
पट इंद्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने,
जब मूर्तिमती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का
शृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है,
मैं आज चला, तुम आओगी
कल, परसों सब संगी-साथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है,
मेरा तो होता मन डग-मग
तट पर के ही हलकोरों से,
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मंझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
-हरिवंशराय बच्चन
आरज़ू थी, हसरत भी,
पर आपको फुरसत नहीं थी,
दिल मेरा क्यों न समझा,
कि आपको मुहब्बत नहीं थी !!
जुस्तजू थी, इनायत भी,
पर आपको अकीदत नहीं थी,
दिल मेरा क्यों न समझा,
कि आपको मुहब्बत नहीं थी !!
जिस राह का कोई छोर नहीं हो,
जिस राह में कोई मोड़ नहीं हो,
उस राह पे हम यूँ चलते आये हैं,
कि बस रात हो कभी भोर नहीं हो !!
सिर्फ तुम हो कोई और नहीं हो,
बेवफाई का कोई दौर नहीं हो,
उस चाह पे हम यूँ जलते आये हैं,
कि परवाने हो कोई जौर नहीं हो !!
बेखुदी थी, रिवायत भी,
पर आपको गैरत नहीं थी,
दिल मेरा क्यों न समझा,
कि आपको मुहब्बत नहीं थी !!
बेरुखी थी,शिकायत भी,
पर आपको हैरत नहीं थी,
दिल मेरा क्यों न समझा,
कि आपको मुहब्बत नहीं थी !!
-Chandra Tewary
फिर से एक नया इन्कलाब चाहिए,
अब दिल में दिया नहीं तूफ़ान चाहिए,
शोले धधकेंगे इन्साफ के तरकश में,
अब हर जुर्म के चेहरे बेनकाब चाहिए,
आग लगे अमन के इन आशियानों में,
हम में फर्क करते मज़हब के पैमानों में,
काँटों के हर चमन का हिसाब चाहिए,
जलने दो बाग़ अब किसे गुलाब चाहिए !!
फिर से एक नया इंतकाम चाहिए,
अभेद सरहद की निगेहबान चाहिए,
नए पन्ने जुड़ेंगे वतन के इतिहास में,
अतीत के मुखौटे नहीं वर्तमान चाहिए,
जो लहू न टपका तो शौर्य ही कैसा,
जो अभय नहीं तो वो मौर्य ही कैसा,
हमें सिकंदर नहीं पुरु की शान चाहिए,
अब गौरव गीत नहीं बलिदान चाहिए !!
-चन्द्र शेखर तिवारी