मई, 2014 के लिए पुरालेख

Kah Liya Karo

Posted: मई 30, 2014 in Uncategorized

हर बेज़बाँ को शोला नवा कह लिया करो,
यारो सुकूत ही को सदा कह लिया करो ।

खुद को फरेब दो की न हो तल्ख़ ज़िंदगी,
हर संगदिल को जान-ए-वफ़ा कह लिया करो ।

गर चाहते हो खुश रहें कुछ बन्दगान-ए-ख़ास,
जितने सनम हैं उन को खुदा कह लिया करो ।

इंसान का अगर क़द-ओ-क़यामत न बढ़ सके,
तुम इस को नुक्स-ए-आब-ओ-हवा कह लिया करो ।

अपने लिए अब एक ही राह-ए-निजात हैं,
हर ज़ुल्म को रज़ा-ए-खुदा कह लिया करो ।

ले दे के अब यही है निशान-ए-जिया ‘क़ातील ‘,
जब दिल जले तो उस को दीया कह लिया करो । -क़ातील शिफ़ाई

He Ishwar

Posted: मई 27, 2014 in Uncategorized

कहाँ-कहाँ मैं ढूँढू तुझको,
कहाँ से देखू तेरा सितारा,
मैं जीता जब भी तू ही जीता,
जब कभी हारा मैं ही हारा ।

इस कुल रहूँ या उस कुल रहूँ,
मैं तो धरा का धूल रहूँ,
कौन सुनेगा व्यवच्छेद ये मेरा,
मैं तो अनन्तर भूल रहूँ ।

अधिकार नहीं मिलता विनय से,
जब नीति हो मूक अनीति के भय से,
क्यों द्वार हैं बंद तू पूछ ह्रदय से,
नहीं अर्थ तुझे क्या धर्म के क्षय से?

हे ईश्वर ! तू यदि हैं, इस नश्वर जग में,
तनिक दया भी शेष जो तेरे रग में,
तेरे नेत्र नहीं क्यों नीर बहाते ,
गुहार ये तुम तक क्यों नहीं जाते । -चन्द्र शेखर तिवारी

Bhikshuk

Posted: मई 26, 2014 in Uncategorized

भिक्षुक -सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

वह आता–
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को– भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता–
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?–
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!

Punya Kamaanewale

Posted: मई 25, 2014 in Uncategorized

पुण्य कमानेवाले योगी, 
पाप के सर पर नाच रहे,
सदियों से पट खुला नहीं, 
मंदिर-मस्जिद बाँट रहे । 

जो लौ जलाये फिरते हैं, 
तंत्र-मंत्र की दीप लिए,
उनसे कह दो अब दूर रहे, 
मानवता हम सीख लिए । 

ये तर्क उन्हें ही दीखता हैं,
श्लोकों और तफ़्सीरों में,
जो न माने वो धर्म-द्रोही हैं,
फिर जकड़ेंगे ज़ंजीरों में । 

जो वेद-कुरान के मालिक हैं,
कहो उन्हें बनाया हैं किसने?
वो लड़े तो तुम्हें भी लड़ना हैं,
कहो धर्म बताया हैं किसने?

ऐसा कोई दिव्य-वरदान नहीं,
जो जटा बढ़ा कर तुम ले लो,
कर धारण कंठी-माला गर्दन में,
स्वर्ग की सीढ़ी तुम चढ़ लो ।

उस पत्थर का क्यों नाम रटे?
जिसे शीश झुकाना निमित हो,
जो सर्वज्ञ वधिर हो अज्ञ हुआ,
स्वयं जिसकी शक्ति सीमित हो । -चन्द्र शेखर तिवारी