जून 15, 2010 के लिए पुरालेख

Parshuram KI Pratiksha

Posted: जून 15, 2010 in Uncategorized

परशुराम की प्रतीक्षा ( चुने अशं ):

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

— रामधारी सिंह ‘दिनकर’

Ho Kaha Agnidharma Navin Rishiyon

Posted: जून 15, 2010 in Uncategorized

” हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों ”

कहता हूँ, ओ मखमल-भोगियो।
श्रवण खोलो,
रुक सुनो, विकल यह नाद
कहाँ से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गाँवों में चिल्लाता है?

जनता की छाती भिंदे
और तुम नींद करो,
अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला,
मुझे परवाह नहीं,
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।

हो कहाँ अग्निधर्मा
नवीन ऋषियों? जागो,
कुछ नई आग,
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊँघ रहे हैं जो, उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।

गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूँ साथी,
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहाँ-जहाँ तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ,
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।

— रामधारी सिंह ‘दिनकर’